सत्यनारायण व्रत कथा

सत्य नारायणकथा करने वाले व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं.
साथ ही यह कथा अनेकों प्रकार से अपनी उपयोगिता भी सिद्ध करती है.
भगवान सत्य नारायण की कथा से समाज के सभी वर्ग को सत्य की शिक्षा मिलती है..
इस व्रत को करने से जीवन के सभी दुख और दरिद्रता का नाश होता है और जीवन में सुख-शांति और समृद्धि आती है.

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Eligible For Puja: Anyone 4 Students enrolled
Last updated Mon, 27-Jul-2020 Hindi-gujarati
पूजा के लाभ
  • एक बार जब कोई व्यक्ति सत्यनारायण व्रत का पालन करना शुरू कर देता है, तो उसके जीवन में उसके भीतर का अंतर साफ हो जाता है।
  • आपकी इच्छाएँ, ज़रूरतें और इच्छाएँ पूरी होंगी यदि आप यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपने कई दिलों को तृप्त किया है।
  • यह आपके मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत करता है क्योंकि आप अपने पथ से अधिक जुड़े और केंद्रित होते हैं।
  • ऐसा माना जाता है कि यह व्रत आपके जीवन की सभी परेशानियों को दूर कर सकता है।

पूजाविधि के चरण
02:17:10 Hours
स्थापन
1 Lessons 00:00:00 Hours
  • सर्व प्रथम एक चौकी रखें। इस चौकी के चारों ओर केले के पत्तों लगाएं। फिर चौकी पर अष्टदल या स्वस्तिक बनाएं। इसके बीच में चावल रख दें। फिर इस पर लाल रंग का कपड़ा बिछाएं। फिर पान सुपारी से भगवान गणेश की स्थापना करें। इसके बाद सत्यनारायण जी की तस्वीर यहां रखें। इसके साथ ही श्री कृष्ण या नारायण की मूर्ति को भी स्थापित करें। सत्यनारायण के दायीं तरफ शंख रखें। फिर उसी तरफ साफ जल से भरा कलश रखें। एक कटोरी में शक्कर या चावल लें। इस कटोरी को कलश पर रख दें। इसी कटोरी पर नारियल भी रख दें। फिर चौकी के बायीं ओर दीपक रखें। इसके बाद आप पूजा शुरू कर सकते हैं। प्रसाद में पंचामृत बनाएं। साथ ही गेंहू के आटे से बनी पंजीरी और फल भी रखें।

    पूजा शुरू करने से पहले भगवान गणेश का नाम लें। उनकी आराधना करें। इसके बाद सत्यनारायण की पूजा शुरू करें। पूजा के दौरान ब्राह्मण द्वारा सुनाई जा रही कथा को श्रद्धापूर्वक और ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। भगवान सत्यनारायण के बाद मां लक्ष्मी और भगवान शिव की अर्चना भी करनी चाहिए। अंत में सभी भगवानों की आरती करें। फिर जो प्रसाद आपने बनाया है उसे सभी में वितरित कर दें। कहा जाता है कि श्री सत्यनारायण का पूजन पूर्णिमा या संक्रांति को किया जाना चाहिए। यह एक माह में एक बार ही किया जाता है।
  • अत्राद्य महामांगल्यफलप्रदमासोत्तमे मासे, अमुक मासे ,अमुक पक्षे,अमुक तिथौ , अमुक वासरे ,अमुक नक्षत्रे , ( जो भी संवत, महीना,पक्ष,तिथि वार ,नक्षत्र हो वही बोलना है )........ गोत्रोत्पन्न : ........... सपरिवारस्य सर्वारिष्ट निरसन पूर्वक सर्वपाप क्षयार्थं, दीर्घायु शरीरारोग्य कामनया धन-धान्य-बल-पुष्टि-कीर्ति-यश लाभार्थं, श्रुति स्मृति पुराणतन्त्रोक्त फल प्राप्तयर्थं, सकल मनोरथ सिध्यर्थ श्री सत्यनारायण कथा करिष्ये। 00:08:22
  • त्वां विघ्नशत्रुदलनेति च। सुन्दरेति। भक्तिप्रियते वरदेति सुखप्रदेति।। विद्या प्रदेत्यधहरेती च ये स्तुवन्ति। तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्य मेव।।
    मंत्र बोल के हाथ में रखे हुए फूल गणपति के चरणों में अर्पण करके मस्तक झुकाकर प्रणाम कीजिये।
    बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की अनामिका से निम्न मंत्र बोलते हुए अपने ऊपर एवं पूजन सामग्री पर जल छिड़कें-
    अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
    यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः।।
    पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं ।

    आसन शुद्धि
    निम्न मंत्र से अपने आसन पर उपरोक्त तरह से जल छिड़कें-
    पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।
    त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु च आसनम्।

    ग्रंथि बंधन
    यदि यजमान या पूजा करने वाले भक्त सपत्नीक बैठ रहे हों तो निम्न मंत्र के पाठ से ग्रंथि बंधन या गठजोड़ा करें-
    यदाबध्नन दाक्षायणा हिरण्य(गुं)शतानीकाय सुमनस्यमानाः ।
    तन्म आ बन्धामि शत शारदायायुष्यंजरदष्टियर्थासम्।

    आचमन करें
    इसके बाद दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें व तीन बार कहें-
    ऊँ केशवाय नमः
    ऊँ नारायणाय नमः
    ऊँ माधवाय नमः
    यह मंत्र बोलकर हाथ धोएं
    ऊँ गोविन्दाय नमः हस्तं प्रक्षालयामि ।

    स्वस्तिवाचन मंत्र
    सबसे पहले स्वस्तिवाचन किया जाना चाहिए।
    स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
    स्वस्ति नस्ताक्र्षयो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
    द्यौः शांतिः अंतरिक्षगुं शांतिः पृथिवी शांतिरापः
    शांतिरोषधयः शांतिः। वनस्पतयः शांतिर्विश्वे देवाः
    शांतिर्ब्रह्म शांतिः सर्वगुं शांतिः शांतिरेव शांति सा
    मा शांतिरेधि। यतो यतः समिहसे ततो नो अभयं कुरु ।
    शंन्नः कुरु प्राजाभ्यो अभयं नः पशुभ्यः। सुशांतिर्भवतु।
    अब सभी देवी-देवताओं को प्रणाम करें-
    श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।
    लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः ।
    उमा महेश्वराभ्यां नमः ।
    वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नमः ।
    शचीपुरन्दराभ्यां नमः ।
    मातृ-पितृचरणकमलेभ्यो नमः ।
    इष्टदेवताभ्यो नमः ।
    कुलदेवताभ्यो नमः ।
    ग्रामदेवताभ्यो नमः ।
    वास्तुदेवताभ्यो नमः ।
    स्थानदेवताभ्यो नमः ।
    सर्वेभ्योदेवेभ्यो नमः ।
    सर्वेभ्यो ब्राह्मणोभ्यो नमः।
    सिद्धि बुद्धि सहिताय श्री मन्यहा गणाधिपतये नमः।
    भगवान गणेश को स्नान कराएं। वस्त्र अर्पित करें। जनेऊ अर्पित करें। गंध, पुष्प, अक्षत अर्पित करें। भगवान नारायण को स्नान कराएं। जनेऊ अर्पित करें। गधं, पुष्प,अक्षत अर्पित करें। अब दीपक प्रज्वलित करें। भगवान गणेश को धूप, दीप करें।
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  • यजमान अपने सामने चावल की ढेरी लगाकर उसके ऊपर ताम्बे का कलश स्थापन करके निचे दिए गए यंत्रो का उच्चारण करते हुए हाथ लगाए :-
    हेमरुप्यादिसम्भूतं ताम्रजं सुदृढ़ं नवम। कलशं द्योतकल्माषं ज़िद्रवर्ण विवर्जितम।।
    जीवन सर्वजीवानाम पावनं पावनात्मकं।
    बीजं सर्वोषधिना च तज्जलं पुरयाम्यहम।। मंत्र बोलकर कलश में पानी भरना है।
    सूत्रं कार्पाससम्भूतं ब्रह्मणा निर्मितं। पूरा येन बद्धं जगत्मर्व वेष्टनं कलशस्य च।।
    बोलकर मौली /सूत्र कलश के ऊपर बांधना है।
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  • सत्यनारायण भगवान की पूजा विधि
    सत्यनारायण भगवान की पूजा करने के लिए सबसे पहले पूजा के स्थान को और पूजा सामग्री को गंगाजल से शुद्ध कर ले।
    1- पवित्रकरण
    सबसे पहले बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की अनामिका, मध्यमा व अगुष्ठा से नीचे का मंत्र बोलते हुए अपने ऊपर जल छिड़कें ।
    मंत्र ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥ पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं ।
    2- पृथ्वी पूजन
    नीचे दिये मंत्र का उच्चारण करते हल्दी, रोली, अक्षत, पुष्प से पूजन करें ।
    ॐ पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता । त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु च आसनम्‌ ॥
    3- श्री सत्यनारायण पूजन प्रारंभ ध्यान- हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर श्री सत्यनारायण भगवान का ध्यान करें ।
    ध्यान मंत्र
    ॐ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितंच सत्ये । सत्यस्य सत्यामृत सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥ ध्यायेत्सत्यं गुणातीतं गुणत्रय समन्वितम्‌ । लोकनाथं त्रिलोकेशं कौस्तुभरणं हरिम्‌ ॥
    ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, ध्यानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि । बोलते हुए अक्षत पुष्प अर्पित कर दें
    । आह्वान- अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए आवाहन करें ।
    आह्वान-मंत्र
    आगच्छ भगवन्‌ ! देव! स्थाने चात्र स्थिरो भव । यावत्‌ पूजां करिष्येऽहं तावत्‌ त्वं संनिधौ भव ॥
    ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, श्री सत्यनारायणाय आवाहयामि, आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ।
    आसन- भगवान को बैठने के लिए पीले चावल का आसन दें । आसन मंत्र
    अनेक रत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम्‌ । भवितं हेममयं दिव्यम्‌ आसनं प्रति गृह्याताम ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, आसनं समर्पयामि ।
    पाद्यं- भगवान के पैर धुलायें
    पाद्यं मंत्र
    नारायण नमस्तेऽतुनरकार्णवतारक । पाद्यं गृहाण देवेश मम सौख्यं विवर्धय ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, पादयोः पाद्यं समर्पयामि ।
    अर्घ्य- भगवान को अर्घ्य दें ।
    अर्घ्य मंत्र
    गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमर्घ्यं सम्पादितं मया । गृहाण भगवन्‌ नारायण प्रसन्नो वरदो भव ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि ।
    आचमन- भगवान को आचमन करायें ।
    आचमन मंत्र
    कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु शीतलम्‌ । तोयमाचमनीयार्थं गृहाण परमेश्वर ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, आचमनीयं जलं समर्पयामि ।
    स्नान - भगवान का शुद्ध जल से स्नान करें ।
    स्नान मंत्र
    मन्दाकिन्याः समानीतैः कर्पूरागुरू वासितैः । स्नानं कुर्वन्तु देवेशा सलिलैश्च सुगन्धिभिः ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, स्नानीयं जलं समर्पयामि ।
    पंचामृत स्नान - भगवान का पंचामृत- दूध, दही, घी शक्कर एवं शहद मिलाकर पंचामृत से स्नान करें । पंचामृत स्नान मंत्र
    पयो दधि घृतं चैव मधुशर्करयान्वितम्‌ । पंचामृतं मयाऽऽनीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, पंचामृतस्नानं समर्पयामि,
    शुद्धोदक स्नान - शुद्ध जल से स्नान करें ।
    शुद्धोदक स्नान मंत्र
    मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम्‌ । तदिदं कल्पितं तुभ्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि ।
    वस्त्र - भगवान को वस्त्र या वस्त्र के रूप में कलावा अर्पित करें ।
    मंत्र शीतवातोष्णसंत्राणं लज्जाया रक्षणं परम्‌ । देहालंकरणं वस्त्रं धृत्वा शांतिं प्रयच्छ मे ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, वस्त्रं समर्पयामि । (वस्त्र अर्पित करें, आचमनीय जल दें।)
    यज्ञोपवीत - भगवान को जनेऊ अर्पित करें । नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम्‌ । उपवीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वर ॥
    ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, यज्ञोपवीतं समर्पयामि ।
    चन्दन - भगवान को चंदन अर्पित करें ।
    श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम्‌ । विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, गन्धं समर्पयामि ।
    अक्षत - भगवान को चावल अर्पित करें । अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ताः सुशोभिताः । मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, अक्षतान्‌ समर्पयामि ।
    पुष्पमाला - भगवान को पुष्प तथा फूलमाला चढ़ायें । माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो । मयाऽऽह्तानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वर ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, पुष्पं पुष्पमालां च समर्पयामि ।
    दूर्वा - भगवान को दूर्वा अर्पित करें । दूर्वांकुरान्‌ सुहरितानमृतान्‌ मंगलप्रदान्‌ । आनीतांस्तव पूजार्थं गृहाण परमेश्वर ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, दूर्वांकुरान्‌ समर्पयामि ।
    धूप, दीप - भगवान को धूप दीप दिखायें । वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यः गन्ध उत्तमः । आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया । दीपं गृहाण देवेश ! त्रैलोक्यतिमिरापहम्‌ ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, धूपं, दीपं दर्शयामि ।
    नैवेद्य -- भगवान को मिठाई अर्पित करें । (पंचमिष्ठान्न व सूखी मेवा अर्पित करें) शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च । आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, नैवेद्यं निवेदयामि ।
    ऋतुफल - भगवान को केले, आम, सेवफल आदि चढ़ायें । फलेन फलितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्‌ । तस्मात्‌ फलप्रदादेन पूर्णाः सन्तु मनोरथाः ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, ऋतुफलं निवेदयामि। मध्ये आचमनीयं जलं उत्तरापोऽशनं च समर्पयामि ।
    ताम्बूल - भगवान को पान सुपारी अर्पित करें । पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्‌ । एलालवंगसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, मुखवासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि ।
    दक्षिणा - भगवान को अपना कमाई का एक अंश के रूप में कुछ द्रव्य अर्पित करें । हिरण्यगर्भ गर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः । अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥ ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, दक्षिणां समर्पयामि ।
    पूजन का क्रम पूरा होने पर क्रमशः भगवान श्री सत्यनारायण की कथा का पाठ स्वयं करें या किसी योग्य ब्राह्मण से सुने । कथा समापन के बाद भगवान सत्यनारायण भगवान की आरती करें । आरती के बाद मंत्रपुष्पांजलि अर्पित करें । अंत में शांतिपाठ कर क्षमा याचना का भाव करते हुए श्री सत्यनारायण भगवान की बिदाई करें ।
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  • श्रीव्यास जी ने कहा – एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि सभी ऋषियों तथा मुनियों ने पुराणशास्त्र के वेत्ता श्रीसूत जी महाराज से पूछा – महामुने! किस व्रत अथवा तपस्या से मनोवांछित फल प्राप्त होता है, उसे हम सब सुनना चाहते हैं, आप कहें। श्री सूतजी बोले – इसी प्रकार देवर्षि नारदजी के द्वारा भी पूछे जाने पर भगवान कमलापति ने उनसे जैसा कहा था, उसे कह रहा हूं, आप लोग सावधान होकर सुनें। एक समय योगी नारदजी लोगों के कल्याण की कामना से विविध लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आये और यहां उन्होंने अपने कर्मफल के अनुसार नाना योनियों में उत्पन्न सभी प्राणियों को अनेक प्रकार के क्लेश दुख भोगते हुए देखा तथा ‘किस उपाय से इनके दुखों का सुनिश्चित रूप से नाश हो सकता है’, ऐसा मन में विचार करके वे विष्णुलोक गये। वहां चार भुजाओं वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमाला से विभूषित शुक्लवर्ण भगवान श्री नारायण का दर्शन कर उन देवाधिदेव की वे स्तुति करने लगे। नारद जी बोले – हे वाणी और मन से परे स्वरूप वाले, अनन्तशक्तिसम्पन्न, आदि-मध्य और अन्त से रहित, निर्गुण और सकल कल्याणमय गुणगणों से सम्पन्न, स्थावर-जंगमात्मक निखिल सृष्टिप्रपंच के कारणभूत तथा भक्तों की पीड़ा नष्ट करने वाले परमात्मन! आपको नमस्कार है। स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहां आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउंगा। नारद जी बोले – भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूं। उसे बतायें। श्री भगवान ने कहा – हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूं, सुनें। हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूं। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है। भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये। श्री भगवान ने कहा – यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूं का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ – यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए। बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है। 00:08:22
  • श्रीसूतजी बोले – हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भलीभांति विस्तारपूर्वक कहूंगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा – हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं। ब्राह्मण बोला – प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये। वृद्ध ब्राह्मण बोला – हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा’ – यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी। अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया। हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं? हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है। श्री सूत जी बोले – मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला – प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये। विप्र ने कहा – यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहां धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया। इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया। 00:08:22
  • श्री सूतजी बोले – श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा। साधु ने कहा – राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूं। राजा बोले – हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं। राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा – राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा। मुझे भी संतति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा – ‘जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा’ – इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा। एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा – आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं? साधु बोला – ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ – ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया। उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोों राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ – यह शाप दे दिया। एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले – ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया। भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी। माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा – पुत्री ! रात में तू कहां रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा – मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की – ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायं।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा – ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।’ राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा – ‘दोनों बंदी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले – ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके। राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा – ‘साधो! अब आप अपने घर को जायं।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ – ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया। 00:08:22
  • श्रीसूत जी बोले – साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई – ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा – ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर – ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ – ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये। दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा – ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं। अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा – आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें – ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया। दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा – ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा। साधु ने कहा – ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये। भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ – ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा – ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा। उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया। इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा – यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी। कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा – या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा – ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं। कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा – ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया। 00:08:22
  • श्रीसूत जी बोले – श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ। उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ। श्रीसूत जी कहते हैं – जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है – यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें। महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे सेचीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया। 00:08:22
  • जय लक्ष्मी रमणा, जय श्रीलक्ष्मी रमणा ।
    सत्यनारायण स्वामी जन पातक हरणा ।।
    रत्नजटित सिंहासन अदभुत छबि राजै ।
    नारद करत निराजन घंटाध्वनि बाजै ।।
    प्रकट भये कलिकारण, द्विजको दरस दियो ।
    बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन महल कियो ।।
    दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी ।
    चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी ।।
    वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीँ ।
    सो फल फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं ।।
    भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रुप धरयो ।
    श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो ।।
    ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी ।
    मनवाँछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी ।।
    चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा ।
    धूप – दीप – तुलसी से राजी सत्यदेवा ।।
    सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै ।
    तन मन सुख संपत्ति मन वांछित फल पावै ।।
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  • सूजी का हलवा /अनार,केले,सेब,चीकू,और सामर्थ्य अनुसार ऋतुफल
    आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता है जिसे सत्तू ( पंजीरी ) कहा जाता है, उसका भी भोग लगता है।
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पूजन सामग्री
  • कपडा पीला /लाल और सफ़ेद -सवा मीटर
  • 1)बाजोठ -२ नंग और 2) पाटला -२ नंग
  • ४ केल के पान
  • 1) विष्णु -लक्ष्मी की मूर्ति या फोटो और2) गणपति की फोटो /मूर्ति
  • नाराछड़ी / मौली
  • आसोपालव का तोरण
  • कलश ( ताम्बा ) -1
  • पंचपात्र (कटोरी)-तरभाणु(थाली)-आचमनी(चम्मच ) - ३ नंग सब
  • जनेऊ -२ नंग
  • श्रीफल -२
  • नागरवेल के पान - 25
  • फूलो के हार -3 और फूल अलग से
  • सुपारी -25 नंग
  • धरो -दूर्वा
  • तुलसी पत्र - 1000
  • कुमकुम ( रोली ) - १० ग्राम
  • चावल - १० ग्राम
  • अबीर -१० ग्राम
  • गुलाल -१० ग्राम
  • सिंदूर -१० ग्राम
  • लौंग -१० ग्राम
  • इलायची -१० ग्राम
  • कच्चा दूध - १०० ग्राम
  • अक्षत ( चावल ) - १ किलो २५० ग्राम
  • दही -१०० ग्राम
  • शहद - २५० ग्राम
  • शक्कर - २५० ग्राम
  • पंचमेवा - २५० ग्राम ( काजू,बादाम ,किशमिश,चिरौंजी,छुआरे )
  • देशी घी - ५०० ग्राम
  • पांच मिठाई - ५०० ग्राम
  • धुप - अगरबत्ती -१ पैकेट
  • गणपति के नैवेद्य - गुड़ और घी
  • सत्यनारायण नैवेद्य - सवाशेर घी ,सवा पांच शेर दूध ,सवाशेर सूजी आटा,सवाशेर केले, अनार ,
  • चन्दन - १० रुपये
  • लक्ष्मी नारायण स्नान के लिए -पंचामृत
  • २ दीपक ,और ५ दिए की आरती
वर्णन
पंचांग के अनुसार हर पूर्णिमा को सत्य नारायण भगवान की पूजा उपासना की जाती है. इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु के नारायण स्वरूप की पूजा की जाती है.
 
. ऐसा माना जाता है कि सत्य नारायण भगवान की कथा भगवान विष्णु के सत्य स्वरूप की कथा है.
 इस कथा के दो प्रमुख विषय हैं जिनमें एक है संकल्प को भूलना और दूसरा है भगवान सत्यनारायण के प्रसाद का अपमान. सत्यनारायण व्रत कथा में अलग-अलग अध्याय में छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से सत्य का पालन न करने पर किस तरह की परेशानियां आती हैं यह बताया गया है
सत्य को ही नारायण के रूप में पूजना सत्यनारायण की पूजा है. सत्य को ईश्वर मानकर निष्ठा के साथ समाज के किसी भी वर्ग का व्यक्ति इस व्रत कथा को सुनता है तो उसे उसकी इच्छा के अनुरूप फल प्राप्त होता है.