वास्तु पूजन

वास्तु पूजा का मनुष्यों और देवताओं से सीधा संबंध है।
हमारा शरीर पांच तत्वों से बना हुआ होता है और वास्तु का सम्बन्ध इन पाँचों तत्वों से माना जाता है।
कई बार ऐसा होता है कि हमारा घर हमारे शरीर के अनुकूल नहीं होता है तब यह हमें प्रभावित करता है और इससे वास्तु दोष उत्पन्न हो जाते है।
वास्तुपूजा दिशाओं के देवता, प्रकृति के पांच तत्वों के साथ-साथ प्राकृतिक शक्तियों और अन्य संबंधित बलों की पूजा है। वास्तु शास्त्र के किसी भी प्रकार के दोष को दूर करने के लिए हम वास्तु शांति करते हैं, चाहे वह भूमि और भवन, प्रकृति या पर्यावरण हो, वास्तु शास्त्र द्वारा भवन की संरचना में बड़े बदलाव और विनाश को रोकने के लिए पूजा की जाती है।
प्राचीन वेदों के अनुसार वास्तु शास्त्र एक विज्ञान है जो किसी व्यक्ति को लाभ प्राप्त करने में मदद करता है।
यह प्रकृति के सभी पाँच मूल तत्वों, अर्थात् आकाश, पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि में व्यापक रूप से पाया जाता है।

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Last updated Tue, 22-Sep-2020 Hindi-gujarati
पूजा के लाभ
  • वास्तु शांति पूजा किसी भी प्रकार के स्वास्थ्य और धन के मुद्दों को समाप्त करती है
  • यह कुंडली पर ग्रहों के नकारात्मक प्रभाव को दूर करने में मदद करता है
  • यह करियर, शादी या जीवन के किसी भी हिस्से में सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करता है
  • यह घर के कोने-कोने की सफाई कर उसमें सुख-समृद्धि लाता है
  • प्राकृतिक और अप्राकृतिक आपदाओं से घरों और कार्यालयों की रक्षा करता है
  • यह व्यापार में धन और समृद्धि भी लाता है

पूजाविधि के चरण
01:40:24 Hours
स्थापन
1 Lessons 00:08:22 Hours
  • 00:08:22
  • Sankalp 00:08:22
  • Ganesh Puja 00:08:22
  • Kalash Puja 00:08:22
  • Kuldevi Puja 00:08:22
  • Vastu Puja 00:08:22
  • Navgrah Puja 00:08:22
  • Shiv Puja 00:08:22
  • Vastu Havan 00:08:22
  • Purnahuti 00:08:22
  • Aarti 00:08:22
  • Prasad 00:08:22
पूजन सामग्री
  • 1)बाजोठ - ४ नंग और 2) पाटला - ४ नंग
  • कपडा लाल -सवा मीटर
  • वास्तु देव की मूर्ति या फोटो या यन्त्र -१
  • गणेश ,महादेव ,कुलदेवी ,लक्ष्मी नारायण की मूर्ति या फोटो, -१
  • पंचपात्र (कटोरी)-तरभाणु(थाली)-आचमनी(चम्मच ) -३ नंग सब
  • कलश ( ताम्बा ) - १
  • श्रीफल -१
  • नागरवेल के पान -५ कपूरी पान
  • फूलो के हार -५ और फूल अलग से
  • आसोपालव का तोरण -१
  • फूलो का तोरण मुख्या द्वार के लिए -१
  • जनेऊ -४ नंग
  • सुपारी -७ नंग
  • धरो -दूर्वा
  • तुलसी पत्र - ११
  • अक्षत ( चावल ) - १ किलो २५० ग्राम
  • कुमकुम ( रोली ) - १० ग्राम
  • चावल - १० ग्राम स्थापना
  • अबीर -१० ग्राम
  • गुलाल - १० ग्राम
  • सिंदूर१० ग्राम
  • लौंग -१० ग्राम
  • इलायची -१० ग्राम
  • चन्दन -१० ग्राम
  • दही -१०० ग्राम
  • शहद - २५० ग्राम
  • देशी घी - ५०० ग्राम
  • पंचामृत - दूध ,दही, घी, शहद,शक़्कर
  • अनार,केले,सेब,चीकू,और सामर्थ्य अनुसार ऋतुफल
  • पंचमेवा - २५० ग्राम
  • पांच मिठाई - ५०० ग्राम
  • धुप - अगरबत्ती -१ पैकेट
  • अखंड ज्योति के लिए दिया -१
  • २ दीपक ,और ५ दिए
  • गंगाजल और पानी - आवश्यकता अनुसार
  • नाराछड़ी / मौली
  • नैवेद्य - श्रद्धा अनुसार प्रसाद
वर्णन

मत्स्य पुराण के अध्याय 251 के अनुसार अंधकार के वध के समय जो श्वेत बिन्दु भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर गिरे, उनसे भयंकर आकृति वाला पुरुष उत्पन्न हुआ।
उसने अंधकगणों का रक्तपान किया तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई ।
त्रिलोकी का भक्षण करने को जब वह उद्यत हुआ, तो शंकर आदि समस्त देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया व पूजा करवाए जाने का वरदान दिया ।
हिन्दु संस्कृति में देव पूजा का विधान है! यह पूजा साकार एवं निराकार दोनों प्रकार की होती है। साकार पूजा में देवता की प्रतिमा, यंत्र अथवा चक्र बनाकर पूजा करने का विधान है ।
वैदिक संहिताओं के अनुसार वास्तोष्पति साक्षात परमात्मा  है, क्योंकि वे विश्व ब्रह्मा, इंद्र आदि अष्ट लोकपाल सहित 45 देवता अधिष्ठित होते हैं ।  कर्मकाण्ड ग्रंथों तथा गृह्यसूत्रों में इनकी उपासना एवं हवन आदि के अलग-अलग मंत्र निर्दिष्ट है।
हयशीर्ष पांचशत्र, कपिल पांचरात्र, वास्तुराजवल्लभ आदि ग्रंथों के अनुसार प्राय: सभी वास्तु संबंधी कृत्यों में एकाशीति (18) तथा चतुषष्टि (64) कोषठात्मक चक्रयुक्त वास्तुवेदी के निर्माण करने की विधि है।
वास्तु देवता का मूल मंत्र :-
वास्तोष्पते प्रति जानी हास्मान! त्स्वावेशो अनमीवो भवान:॥
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वशं नो! भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥
                                    
जिस स्थान पर गृह, प्रसाद, यज्ञमंडप या ग्राम नगर आदि की स्थापना करनी हो, उसके नैऋत्य कोण में वास्तु देव का निर्माण करना चाहिए! सामान्य विष्णु रूद्रादि यज्ञों में भी यज्ञमंडप में यथा स्थान नवग्रह, सर्वतोभद्र मण्डलों की स्थापना के साथ-साथ नैऋत्य कोण में वास्तु पीठ की स्थापना आवश्यक होती है! वास्तु शान्ति आदि के लिए अनुष्ठीयमान वास्तु योग कर्म में तो वास्तु पीठ की ही सर्वाधिक प्रधानता होती है!